Thursday, January 20, 2011

सेन को फांसी दे दो




क्या हमें नहीं सोचना चाहिए कि लोकतंत्र में भ्रष्टाचार से निपटने से बड़ी चुनौती अब उसको औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी होने से बचाने की है


२४ दिसबर की शाम जब सूरज ढ़ल रहा था, गीतकार नीलेश मिश्रा फेसबुक वॉल पर जो लिख रहे थे, वह उनका अगला गीत नहीं था, वह जो था , उसका कार्यकारी अनुवाद यह हो सकता है कि *''बिनायक सेन नक्सलियों को जानते हैं, जो दातेवाड़ा में काम करने के लिए उन्हें जरूरी था, क्या उन्होंने उनके आंदोलन को भड़काया? मुझे नहीं पता पर अगर नहीं तो नक्सली लोगों को जानना और उनसे संपर्क होना आतंकवादी और देशद्रोही नहीं बना सकता। क्या इंटेलीजेंस एजेंसी के लोगों को जानने भर से कोई जासूस करार दिया जा सकता है? *''

मैं २४ दिसबर की शाम से आज तक भी नीलेश मिश्रा से असहमत होने का तर्क नहीं खड़ा कर पाया हूं। दरअसल मुझे तो लगता है कि बहुत जरूरी हो गया था बिनायक सेन को अंदर करना। कलमाडियों, राडियाओं, वीर सांघवियों और बरखा दत्तों के देश में बिनायक सेन को कैसे खुला घूमने दिया जा सकता है?

आजाद भारत का सबसे बड़ा इतिहासकार बिनायक सेन के लिए लिख रहा है ! क्यों आंद्रे बेते और हर्ष मंदर जैसे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के लोग उसके पक्ष में बोल रहे है? मेरी समझ में नहीं आ रहा है? क्यों एमनेस्टी वाले इस नॉनसेंस सेन के लिए चिल्ला रहे हैं? उनके पास और कोई काम नहीं है क्या?

मेरी पहली अनौपचारिक मुलाकात बिनायक सेन से कोई दस बरस पहले शायद जेएनयू के ब्रह्मपुत्रा छात्रावास में हुई थी, यह एक सार्वजनिक मुलाकात थी, जब वे मैस में बुलाए गए थे, जब मैं करोलबाग के एक सस्ते से होटल में अपने एक ब्रिटिश रिसर्च स्कॉलर दोस्त के साथ रुका था और राष्ट्रीय अभिलेखागार की अपनी तय दिनचर्या को तोड़कर दिल्ली की सर्दी में दो बसें बदलकर उन्हें सुनने पहंचा था, हालांकि ठीक-ठाक सी व्यक्तिगत मुलाकात पिछले दिनों जयपुर में पीयूसीएल के एक आयोजन में हुई। तब तक पिछली मुलाकात धुंधली हो गई थी, देखना भर जेहन में अटका हो तो बहुत, पर अब जो चेहरा सामने था, वक्त के निशान उस चेहरे पर कुछ इस तरह से थे कि शक्ल के नक्श बदल गए थे, कि चेहरा नया सा था। मेरा बहुत मन था कि उनके नक्सली संपर्को पर उनसे तीखे सवाल करूं कि क्यों वे मासूम मनुष्यों को मारने वाले लोगों के साथ खड़े नजर आते हैं? पर मैं स्वीकार करता हूं कि उनकी मासूमियत और सहज मानवीयता ने मुझे वे क्रूर सवाल करने से रोक दिया। हालांकि बहुत से मित्र लोग सेन की इस मासूमियत के दूसरे अर्थ निकाल सकते हैं, निकालेंगे ही, और निकालना उनका लोकतांत्रिक अधिकार भी है। पर क्या यही अधिकार सेन को दिया जा सकता है, क्या दिया जाना चाहिए, शायद नहीं, यकीनन नहीं! उनसे मैंने पूछा-'' क्या योजना है? कल को किस उम्मीद से देखते है?'' तो उनका जवाब था- ''जी पाना और
बेहतर दुनिया के लिए खड़े लोगों का साथ देने की कोशिश करना।'' ये बिनायक सेन कितना वाहियात आदमी है, कितना अजीब सोचता है, भारतीय लोकतंत्र में सब खुशी से जी ही रहे हैं, तरक्की कर रहे हैं? उसको हम सबकी इन तरक्कियों से जलन हो रही है, शायद, नहीं उनके ये शब्द प्रमाण हैं, भारतीय परंपरा में प्रमाण की बड़ी महिमा है, इसलिए उसको फांसी नितांत वाजिब है।

सेन का नॉनसेंस व्यवहार उन्हें इक्कीसवीं सदी का सुकरात बना सकता है, हम क्या इजाजत दे सकते हैं? कतई नहीं दे सकते? यह ईसा से पांच सौ साल पहले का यूनान नहीं है, यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, कोई मजाक थोड़े ही है साहेब।
मेरी पुरजोर मांग है कि सेन को फांसी बहुत जरूरी है, देशहित मानवहित से बड़ा है, देश यानी सत्ता भारत के चुने हुए नेताओं की सत्ता। घोटालों से बचकर जीवन जीना और चुनाव लड़कर फिर फिर घोटलों के लिए जनता का लाइसेंस हासिल कर देना यथेष्ट देशहित है। इससे लोकतांत्रिक अधिकार से किसी ने बिनायक सेन को वंचित किया क्या? कोई प्रमाण नहीं है, तो दोष सरकार का नहीं है, और लोकतंत्र का तो बिल्कुल भी नहीं है। उसे खाने और कमाने से किसी ने रोका था क्या? बदनाम करते हैं ऐसे टुच्चे लोग, देश को, देश की गरीबी को, यह राष्ट्रद्रोह हुआ ना? फांसी के लायक भी हो गया ना? तो दे दीजिए ना रोज-रोज का टंटा खत्म कीजिए, नहीं तो कहीं पुलिस मुठभेड़ में ही मार देना चाहिए।

देश विकास के पथ पर है, इसमें गरीब और गरीबी, आदिवासी और जंगल की बात सिर्फ मानव संसाधन के लिहाज से होनी चाहिए, गरीबों को रोका ही नहीं है कि वे विकास कार्यो में मजदूरी करें, ऐसे मानव संसाधनों को जो देश के विकास की नींव हो सकते हैं, के किसी इतर स्वाभिमान की बात करना उन्हें देश के विकास के अलावा अपने विकास और भूख के नारे लगाने के लिए भड़काने का काम सेन प्रत्यक्ष परोक्षत: करते रहे हैं। यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है। उन्हें तुरंत फांसी देनी चाहिए।

मेरी समझ में नहीं आता कि ऐसे सेन-नॉनसेंस जन्म ही कैसे ले लेते हैं? क्या ऐसे गुणसूत्रों को बैंक में रखकर किसी भी नवगर्भस्थ के गुणसूत्रों के मिलान और मिलान पर गर्भपात की राष्ट्रीय हित में मुकम्मल व्यवस्था करवाने का समय आ गया है। देश आजाद हो चुका है ऐसे नॉनसेंस को यह समझ क्यों नहीं आता? अब भगतसिंह की जरूरत नहीं है जिनकी जरूरत है वे सब हैं हमारे पास। ऐसे भगतसिंह को फांसी देनी ही चाहिए, २३ मार्च अभी दूर है, पहले ही दे दो। आखिर में १९९६ के नोबेल साहित्य की विजेता शिंबोर्स्का की एक पंक्ति- ''सबसे बड़ा व्यभिचार है सोचना''। इसलिए मेरे महान राष्ट्र भारत के वीरो, सोचिए मत, सेन बाबू को तुरंत फांसी देना सबसे बड़ा राष्ट्रहित है।

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