Saturday, October 2, 2010

मेरी जात क्या पूछते हैं साहिब ?



महानगरों में डेढ़ दशक की रहनवारी के बाद मैं नाउम्मीद सा हूं कि भारत में कभी ऐसा होगाकि जब लोग आपकी जातीय पहचान जानने को लालायित नहीं होंगे। मेरा जाती खयाल है कि यह लालायित तबका हमेशा ही बड़ा रहा है और रहेगा भी।


लेखक और जाने माने स्तंभकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक पिछले दिनों मेरे लिए अतिरिक्त सम्माननीय इसलिए हो गए कि उन्होंने जनगणना में जातीय आधार और फिर जातिवाद के खिलाफ एक अभियान की जोरदार कोशिश की, मैं जाती तौर पर इस खयाल का रहा हूं, थोड़ा व्यक्तिगत बात कहने की छूट लेते हुए कहूं तो इसीलिए अपने नाम को किसी जातिमूलक प्रत्यय से बचा के रखता हूं। मेरा मानना है कि अगर मैं अपने काम में बुरा हूं तो गाली देने के लिए और अच्छा हूं तो भी श्रेय के लिए किसी जातिसूचक शब्द तक जाने की जरूरत क्या है। वैसे यह भी पूरी तरह जाती मामला है कि आप अपनी पहचान किस रूप में मानते हैं और किस रूप में लोगों के सामने पेश होना चाहते हैं, यकीन मानिए मुझे जरा भी अफसोस नहीं है कि इस घोर गैरजातिवादी सोच के कारण जिंदगी में कितने दोस्त खोए हैं जिनके लिए किसी की पहचान उसकी जात से शुरू होती है। इतिहास के थोड़े बहुत जानकार तो कम से कम मेरे साथ खड़े ही होंगे कि इनसान तो दुनिया में तब भी था जब किसी काल विशेष में जातियों का विभाजन नहीं हुआ था, और तार्किक रूप से जब कर्म के आधार पर, अगर केवल भारतीय संदर्भों की बात करें तो, पहले वर्ण बनें और तदंतर वे जाति के रूप में प्रतिस्थापित, प्रचलित और मान्य हो गए, सेवा में, सविनय निवेदन है कि, तो फिर क्या इस मूलत: कर्म आधारित व्यवस्था को पूरे जीवन का आधार बनाना वाजिब है?
मुझे अपने विद्यार्थी जीवन का एक किस्सा याद आता है, मुझसे एक बहुत मेधावी लड़की, जो एक दर्जा आगे थी पर उम्र में मुझसे छोटी थी, तथाकथित रेगिंग के दौरान, उसने मेरे नाम को अधूरा पाकर पूछा- आगे? तो इस अप्रत्याशित सवाल पर मेरा जवाब भी अनायास था कि अगर मैं जिस जाति से हूं जिससे आप, तो क्या आप मुझसे शादी कर लेंगी और नहीं तो क्या मुझे गोली मार देंगी? मेरे जवाब में तल्खी थी और अब उसके पास कोई जवाब नहीं था, जाहिरन उसका मूड खराब हुआ और मेरा भी। और फिर जब तक हम उस संस्थान में रहे, हमारा छत्तीस का आंकड़ा रहा। इससे इतर भी जिंदगी में जाति ना जाहिर करने की वजह से बहुत अजीबोगरीब वाकए मेरे साथ हुए हैं, कई बार लोग यह मानते हैं कि दलित होकर किसी हीनताबोध में जाति छुपाता हूं, या कई बार तथाकथित वर्णसंकर होने के किस्से अपने बारे में सुनने को मिलते हैं, जो मानना चाहें लोग मान सकते हैं। काबिले गौर है कि ऐसे वाकए तथाकथित सभ्य-पढ़े लिखे तबकों की ओर से होते हैं, महानगरों में डेढ़ दशक की रहनवारी के बाद मैं नाउम्मीद सा हूं कि भारत में कभी ऐसा होगाकि जब लोग आपकी जातीय पहचान जानने को लालायित नहीं होंगे। मेरा जाती खयाल है कि यह लालायित तबका हमेशा ही बड़ा रहा है और रहेगा भी।
अपने निजी उदाहरण से ही एक बात और कहूं तो अपनी नौकरियों के दौरान भी एचआर विभागों के लोगों से हर जगह मेरी झड़प हुई है, वे कोई तर्क आसानी से नहीं मानते कि मैं क्यों अपनी पहचान में जाति इस्तेमाल नहीं करता, और वे मेरे पिता के नाम से उठा के जातिवाचक शब्द मेरे नाम से जोड़ देते हैं, और मैं अकसर उग्र हो जाता हूं, पर फिर मुझे उन पर रहम आता है, और फिर खुद पर भी। दुआ ही कर सकते हैं कि जातियां हमारी बुनियादी पहचान ना बनें, और जातियों के आधार पर हम दोस्तियां या रिश्ते या दुश्मनियां ना बनाएं। ऐसे जातिनिरपेक्ष लोग अभी तो बहुत कम हैं, वैसे भी हमें जातियों में बांटकर अपनी जीत को पक्का करना सियासत की मजबूरी और बेशर्मी हो सकती है, पर हमारी क्यों हो?

4 comments:

Vivek Gupta said...

बढिया. जाति नहीं, पूर्वजों और हमारे अच्छे कर्म ही हमारी पहचान और गर्व का विषय होने चाहिए.
यह विडंबना ही है कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों ने ही समाज को जातियों में बांट कर रखा है. बौद्धिक मीडिया भी पीछे नहीं है, जो राजनीतिक दलों द्वारा कार्यकारिणी की घॊषणा होते ही इस विच्छेदन में लग जाता है कि किस जाति को कितना प्रतिनिधित्व मिला और किसे कितना नहीं मिला. यह भी आश्चर्य की बात है कि सांप्रदायिक कहे जाने वाले संगठन और दल जातियों को पीछे छोडना चाहते हैं.

Anonymous said...

ishwar se kamna hai aapke vicharon ka prasar ho. ek bar to lag raha tha ki janganna bina jatiya hogi jo bhi committee banai gai thi desh ke bhavishya ke bare me sochegi lekin hamare jan netaon me aisi soch nahi dikhai di....aapne bahut gahrai se vishleshan kiya hai hamare samajik tanebane ke kadve sach ko ujagar kiya hai...pichhle dino ek paricharcha me vibhinn kshetron me kam kar rahi prabudddh mahilaon ne jatiya janganna ko uchit nahi bataya lekin acharyajanak rup se ek samaj shashtri ne kaha ki ham apne sajatiyon me apne aap ko jyada surakshit mahsus karte hain...aise me kya kiya ja sakta hai jab disha dene wale aise vichar rakhte hon...yadi koi bada samuhik abhiyan chal sake to jati ke colum me ham "bhartiya" likhkar is jatiya janganna ka samna kar sakte hain....
aap apne blog ke book shelf me kamse kam ek kitab to hindi ki bhi to dikhate janab....

Unknown said...

aapne bahut achhe vichar vyakt kiye hain desh ki pragti ke liye jaruri hai ki ham jatigat vaimanshyta se apne aap ko dur rakhen...kuchh dino pahle jatiya janganna par kuchh mahilaon ne ek paricharcha me apne vichar rakhe adhikansh ne jatiya janganna ke khilaf hi apna mat vyakt kiya kintu ashcharya ki baat hai ki ek samajshashtri prabuddh mahila ne kaha ki ham apne sajatiya logon me hi khud ko adhik sahaj mahsus karte hain aur ye kahkar unhone jatiya janganna ke paksh me apneaap ko khada dikhaya....aapke vicharon se sahmat log bhi bahut se log honge hi jarurat to ab is baat ki hai jab jati puchhi jaye to ham uske jawab me apneaap ko "bhartiya" likhen.....
aap apne blog me dikhaye apne book shelf me kam se kam ek kitab to hindi ki bhi rakhiye....saadar

santosh pandey said...

bhai dushyantji sadar naman.
aakhir aaj aapka blog dikhai pad gaya. badhiya to aap likhte hi hain. kabhi mere blog sarerang.blogspot.com par tashrif layen.
santosh pandey.